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Rangpanchami Ger Indore: नीले आसमान ने जैसे धानी चुनर ओढ़ ली हो…!

Rangpanchami Ger Indore: रंग पंचमी के अवसर पर इंदौर में निकलने वाली गेरें किसी भी समय विश्व धरोहरों में शामिल हो सकती हैं। इसके लिए सरकारी स्तर पर लगातार प्रयास जारी हैं लेकिन ये रोमांचक गेरें कब और कैसे निकलनी शुरू हुईं, इसके बारे में कई किस्से मशहूर हैं।

 

क्या बताया सत्तन गुरु ने? : देश-विदेश में हिन्दी कवि सम्मेलनों में अपने अद्भुत संचालन का सालों से जलवा बिखेर रहे इंदौर निवासी कवि, भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व भाजपा विधायक सत्यनारायण सत्तन उर्फ सत्तन गुरु ने इंदौर में पहली बार गेर निकलने का एक दिलचस्प किस्सा सुनाया था।

 

सत्तन गुरु के अनुसार शहर के पश्चिम क्षेत्र में यह गेर 1955-56 में निकलनी शुरू हुई थी। गुरु ने बताया था कि गेरों के पहले शहर के मल्हारगंज क्षेत्र में कुछ लोग खड़े हनुमान के मंदिर में फगुआ (फागुन महीने के गीत) गाते थे और एक-दूसरे को रंग गुलाल लगाते थे।

 

रंगू पहलवान ने शुरू की गेर : सत्तन गुरु के अनुसार 1955 में एक रोचक वाकया हुआ जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध ये गेरें निकलनी शुरू हुईं। तब मल्हारगंज क्षेत्र में ही एक शख्स रंगू पहलवान रहा करते थे। रंगू पहलवान ने 1955 में रंग पंचमी के दिन एक अनोखा प्रयोग किया। उन्होंने एक बड़े से लोटे में केसरिया रंग घोलकर आने जाने वाले लोगों पर वो रंग छिड़कना शुरू किया। बस यहीं से रंग पंचमी के मौके पर गेर खेलना या निकलना प्रारंभ हुआ।

 

सत्तन गुरु ने बताया था कि तब रंगू पहलवान अपनी दुकान के ओटले पर बैठक लगाया करते थे जिसे बाद में बौद्धिक अड्डा भी कहा जाता रहा। उसी बैठक में एक बार आपस में यह चर्चा की गई कि इस तरह रंग खेलने को सार्वजनिक और भव्य पैमाने पर खेलना कैसे प्रारंभ किया जाए? तब तय हुआ कि इसी इलाके के टोरी कॉर्नर पर प्रत्येक साल (कोरोना काल को छोड़कर) रंग पंचमी पर रंग घोलकर एक-दूसरे को रंग डालने की जो छोटी-सी परंपरा शुरू हुई, वह आज वैश्विक स्तर पर चर्चित है।

 

बता दें कि रंग पंचमी के अवसर पर कभी शहर के प्रत्येक बड़े चौराहे पर रंग के कड़ाव लगा करते थे जिसमें रंग घोलकर रखा जाता था और लगभग हर आने-जाने वालों को उसमें टांगा टोली करके डुबोया जाता था।

 

परंपरा 300 साल पुरानी होलकर राजवंश से जुड़ी हुई है : इन गेरों के बारे में दूसरी किंवदंती यह भी है कि यह परंपरा लगभग 300 साल पुरानी होकर मालवा के होलकर राजवंश से जुड़ी हुई है। कुछ पुरानी मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार होलकर राजघराने के लोग रंग पंचमी के दिन बैलगाड़ियों में सवार होकर पूरे शहर में फूलों और रंग-गुलाल से आम लोगों के साथ रंग खेलते थे। रास्ते से गुजर रहा कोई भी व्यक्ति शायद ही इस रंग-गुलाल से बच पाता था। इस परंपरा का उद्देश्य सभी वर्गों के साथ मिलकर त्योहार मनाना था।

 

सारा आलम बरसाने की लट्ठमार होली जैसा : खास बात यह है कि आज भी इन गेरों में समाज के लगभग हर वर्ग के लोग शामिल होते हैं और सारा आलम बरसाने की लट्ठमार होली जैसा होता है जिसे देखने देश-दुनिया के पर्यटक भी आते हैं। अब तो इंदौर और आसपास के शहरों तथा गांवों में भी गेरें निकालने का रंगीला प्रचलन शुरू हो गया है।

 

इंदौर में अब कई गेर समितियां बनीं : इंदौर में अब चूंकि कई गेर समितियां बन चुकी हैं इसलिए जिला प्रशासन ने उन्हें क्रम एलॉट कर दिया। सभी गेरें टोरी कॉर्नर पर जाकर महागेर में तब्दील हो जाती हैं। इन गेरों में पानी से भरे टैंकर चलते हैं जिसमें रंग घुला होकर मिसाइलों उर्फ पानी की मोटरों से बड़ी-बड़ी मंजिलों पर रंग फेंका जाता है।

 

पूरे नीले आसमान ने आज जैसे धानी चुनर ओढ़ ली हो: सुदूर आसमान को देखकर बार-बार लगता है कि रंगोत्सव के बहाने पूरे नीले आसमान ने आज जैसे धानी चुनर ओढ़ ली हो। नृत्य करती हुईं टोलियों पर जब नजरें पड़ती हैं तो एक कठोर दिल भी मचलकर कह उठता है कि जीवन यदि कहीं है तो यहीं है और उसका आसान और सही पता इन्हीं लजाते 7 रंगों में मिलता है।

 

तो मुबारक हो आपको रंग पंचमी…!